इन खून में साने हाथो का कपकपाना सुन,
एक सकपकाए दिल ने आवाज़ लगाई फिरसे,
‘क्या साँस बाकी है अभी?
या एहसास हुआ कोई ग़लत फिर से?’
आँखों से पानी रिस्ता देख लगा,
थोड़ी जान बाकी अभी थी शायद उसमे;
अपने खूनी की तरफ देख,
हाथ उठा गुहार लगाई फिर उसने|
ना थी अब कोई भावना,
ना प्यार, ना संतवाना;
फिर भी उसके दर्द से कराने आज़ाद,
घोत कर गला पड़ा दबाना|
स्थिर हो गये उसके फड़फदते पैर,
हाथ, और शांत हो गयी उसकी चीख;
पर इस सन्नाटे में भी सुनाई दे रही थी,
उसके जीवन जीने की रीत|
हमेशा खुशी को पाने का सोचती थी,
सपनो में रहती खुश;
हर सपना उसका था अधूरा,
फिर भी जीवन जीती थी बिना किसी अंकुश|
सीखने को बहुत कुछ था उससे,
कुछ नही तो खुशी का राज़ ही बताती;
नही कुछ तो साथ बैठ किसी दिन फ़ुर्सत से,
अपनी कला से हसना सिखाती|
पर किसी एक दिन याद नही,
हावी होने लगा मैं उसपे;
उसकी खुशी ना थी भाती अब,
चिढ़ता था उसके जीने के अंदाज़ से|
फिर ना जाने कब आज का दिन आया,
बोले बिना किसी बात ना वार्ता;
खून में साने थे हाथ मेरे,
और मृत पड़ी थी महत्वाकांक्षा|
और मृत पड़ी थी महत्वाकांक्षा|
Bahut badhiya!
ReplyDeleteभौकाल सुधीर! जबर्दस्त।
ReplyDeleteधन्यवाद भाई।
Deleteभलो खूब भालो !
ReplyDeleteएमी के कविता भलो भाषी |
thank you Hemant Bhaiya. Aap kabse bengali ho gaye!!
DeleteThe last line moved me !!
ReplyDeleteVery well done Sud.
thank you bro. :)
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