आज भी पापा की थैली में, कुछ खाने का पा जाते हैं, आज भी उनके जगाने के झूठ में, अक्सर फस जाते हैं| आज भी कुछ गरजने की आवाज़ सुन, आँखें आसमान को देखती हैं, आज भी ये आँखें कोई, हवाइज़हाज़ या हेलिकॉप्टर ढूंडती हैं| आज भी सुबह उठने में, उतनी ही परेशानी होती है, आज भी आधी नींद में, पूरी किताबें पलटती हैं| आज भी मुसीबत में फोन, सबसे पहले दादा को ही जाता है, और फिर उसके फोने के साथ, पूरा समाधान भी आता है| आज भी गाने, वो पुराने ही अच्छे लगते हैं, कभी रफ़ी, कभी किशोर, तो कभी मुकेश भी सुन लेते हैं| पर आज क्यू अकेले, अंधेरे में रहते हैं, दूसरो को सिर्फ़, हसते हुए रहते हैं? आज क्यू आँसू सिर्फ़ आँख तक ही रह जाते हैं? क्या अभी बचपन, सिर्फ़ भुलाने को कहते हैं?
This blog is about the general pondering any tormenting mind does. Sometimes this mind is in dilemma, sometimes atheist, sometimes rational, sometimes about society, sometimes about love and sometimes...