काश उन पंखों में हवा होती,  तो कहीं दूर चल देते हम;  थोड़ी देर ठहरते,  फिर उससे भी दूर उड़ जाते हम|   उड़ने से थके पंखों को बालों में घिसते,  फिर नाखूनो से मोदते उन्हे हम;  नोक को सीधा कर के,  फिर हवा में चल देते हम|   जोड़ों को दबा कर,  उनमें फूँक भी भर देते हम;  एक आँख से निशाना लगा के,  फिर से उड़ चलते हम|   कहीं समुंदर देखते,  तो कहीं पहाड़ भी देखते हम;  कहीं झरने देखते,  तो कहीं इमारतें भी देखते हम|   पर ये जहाज़ कभी उड़े ही नहीं,  कभी ये दूर तक गये ही नहीं|  कुछ थे बने अख़बारों से,  तो कुछ फटे पन्नो से|   कुछ थे बने लड़ाई में,  तो कुछ बस युहीन खेल में|  पर उन सबकी उड़ान छोटी ही थी,  छत से सूखे आँगन तक|      
This blog is about the general pondering any tormenting mind does. Sometimes this mind is in dilemma, sometimes atheist, sometimes rational, sometimes about society, sometimes about love and sometimes...