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Showing posts from April, 2015

काग़ज़ के जहाज़

काश उन पंखों में हवा होती, तो कहीं दूर चल देते हम; थोड़ी देर ठहरते, फिर उससे भी दूर उड़ जाते हम| उड़ने से थके पंखों को बालों में घिसते, फिर नाखूनो से मोदते उन्हे हम; नोक को सीधा कर के, फिर हवा में चल देते हम| जोड़ों को दबा कर, उनमें फूँक भी भर देते हम; एक आँख से निशाना लगा के, फिर से उड़ चलते हम| कहीं समुंदर देखते, तो कहीं पहाड़ भी देखते हम; कहीं झरने देखते, तो कहीं इमारतें भी देखते हम| पर ये जहाज़ कभी उड़े ही नहीं, कभी ये दूर तक गये ही नहीं| कुछ थे बने अख़बारों से, तो कुछ फटे पन्नो से| कुछ थे बने लड़ाई में, तो कुछ बस युहीन खेल में| पर उन सबकी उड़ान छोटी ही थी, छत से सूखे आँगन तक|