आज इतनी धूप क्यू है, हवा के साथ,ये धूल क्यू है, मुझे तो चलना सीधे हैं, मेरे खिलाफ इसका रुख क्यू है? यू ही चलते हुए इस धूप में, बिना टोपी और शूज़ मैं, मेरे साथ या मेरे खिलाफ ये लू है, आज इतनी धूप क्यू है? यू ही चलते हुए हवाओं में, क्या नज़र आया इन बंद आंखो से, मेरी ही तरह एक मुसाफिर, पर वो इतना खुश क्यू है? कपड़े हैं पुराने से, धूल में सने हुए, पर उसके चेहरे से कुछ और ही लगता है, धूल से गंदा,पर वो हंसी क्यू है? शायद कुछ पा लिया है उसने, शायद कुछ खास हो वो, या वो लौट के आ रहा है,पाके अपनी मंज़िल को, इसीलिये शायद इतना खुश वो है! उसको देखते हुए आगे निकल गया मैं, और वो मुस्कुराते हुए, हाथ हिलाते हुए, पीछे निकल गया क्यू है? कहाँ से आया था वो, कहाँ था जाना उसको, कभी नहीं जान पौन्गा, क़ी वो इतना खुश क्यू था! पर मैं चलता रहा युही, मुझे तो चलना सीधे था, हवा के साथ,ये धूल क्यू है, आज इतनी धूप क्यू है??
This blog is about the general pondering any tormenting mind does. Sometimes this mind is in dilemma, sometimes atheist, sometimes rational, sometimes about society, sometimes about love and sometimes...