आज से अच्छा तो वो बचपन ही था, जब झींझक से आज़ाद थे| कोई रोक ना कोई टोक थी बोलने पे, कुछ भी पहेन्ने को आज़ाद थे| आज जो एक ख़ौफ्फ सा लगता है, अपने दिल का करने में| इस ख़ौफ्फ से भरी ज़िंदगी से, तब तो पूरा आज़ाद थे| धर्म का कोई बंधन ना था, ना था कोई डर भगवान से| आज जो ख़ौफ्फ है पुजारियो से, उस ख़ौफ्फ से बिल्कुल आज़ाद थे| वो दोस्त जिसके डब्बे से खाते थे, वो दोस्त जिसको दिन भर चिढ़ते थे, आज जिसको धर्म पे बाटते हैं, तब उसका पूरा नाम भी नही जानते थे| ये बटवारा काइया किसने है? ये दर्रार डाली किसने है? पर आज जो दर्रार भरने को डरते हैं, उस डर से तब सब आज़ाद थे| मन का कहने से डर ना लगता था, ना था डर खुल क सोचने में| आज जिस सोच में भी झींझक है, उस झींझक से पूरा आज़ाद थे| उस सोचने से ही आता था समझ, सही-ग़लत क बीच का भेद| आज जो भेद भी धुंधला सा लगता है, उस उलझन से तब आज़ाद थे| इस झींझक, इस ख़ौफ़, इस घुटन से, चाहिए आज तो आज़ादी हमें| ना लौटा सको वो बचपन तो, वो आज़ादी ही लौटा दो हमें|
This blog is about the general pondering any tormenting mind does. Sometimes this mind is in dilemma, sometimes atheist, sometimes rational, sometimes about society, sometimes about love and sometimes...