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इंतेज़ार

दिन भर उस चबूतरे पे बैंठ, हाथों से पान में उन डलियों को ऐंठ, देर तक उस गलियारे को देख, इंतेज़ार किसी अपने का ही वो करती थी। पुराने सलवार और कमीज को सिल, बच्चों की शर्तों में कहीं जोड़, कहीं चक्ति। बस एक वो पानदान, और वो सिलाई मशीन, जाने कितने ही साल इंतेज़ार वो करती रही। कभी आता था वो, कभी नही भी, पर इंतेज़ार होता पूरा नही। कभी थोड़ा बैठ बातें करते थे शायद, पर इंतेज़ार होता पूरा नही। इंतेज़ार शायद उस शक्स का नही, उसके जज़्बातों का था उसको। कुछ लफ्ज़ सुनने का, कुछ गीत सुनाने का था उसको। बहुत पहले ही ब्याह के आयी थी, न ज़्यादा थे ख्वाब, न ज़्यादा उम्मीद। बस एक ख्वाब, बस एक वही, दो लफ्ज़ प्यार, एक प्रेम गीत। अक्सर श्रृंगार कर उसको रिझाती, रंग गुलाबी गालों पे लगाती, पर न सुन पाती वो लफ्ज़ उससे, न वो गीत सुना पाती। हर बार, हर बात उसके गालों पे रुक जाती थी। हर बार, हर बात उनपे पटाखों सी बज जाती थी। अक्सर उसका रूह बन जाने का मन करता, पर फिर अगले रोज़, वो इंतेज़ार में बैठ जाती थी।