आज से अच्छा तो वो बचपन ही था,
जब झींझक से आज़ाद थे|
कोई रोक ना कोई टोक थी बोलने पे,
कुछ भी पहेन्ने को आज़ाद थे|
आज जो एक ख़ौफ्फ सा लगता है,
अपने दिल का करने में|
इस ख़ौफ्फ से भरी ज़िंदगी से,
तब तो पूरा आज़ाद थे|
धर्म का कोई बंधन ना था,
ना था कोई डर भगवान से|
आज जो ख़ौफ्फ है पुजारियो से,
उस ख़ौफ्फ से बिल्कुल आज़ाद थे|
वो दोस्त जिसके डब्बे से खाते थे,
वो दोस्त जिसको दिन भर चिढ़ते थे,
आज जिसको धर्म पे बाटते हैं,
तब उसका पूरा नाम भी नही जानते थे|
ये बटवारा काइया किसने है?
ये दर्रार डाली किसने है?
पर आज जो दर्रार भरने को डरते हैं,
उस डर से तब सब आज़ाद थे|
मन का कहने से डर ना लगता था,
ना था डर खुल क सोचने में|
आज जिस सोच में भी झींझक है,
उस झींझक से पूरा आज़ाद थे|
उस सोचने से ही आता था समझ,
सही-ग़लत क बीच का भेद|
आज जो भेद भी धुंधला सा लगता है,
उस उलझन से तब आज़ाद थे|
इस झींझक, इस ख़ौफ़, इस घुटन से,
चाहिए आज तो आज़ादी हमें|
ना लौटा सको वो बचपन तो,
वो आज़ादी ही लौटा दो हमें|
जब झींझक से आज़ाद थे|
कोई रोक ना कोई टोक थी बोलने पे,
कुछ भी पहेन्ने को आज़ाद थे|
आज जो एक ख़ौफ्फ सा लगता है,
अपने दिल का करने में|
इस ख़ौफ्फ से भरी ज़िंदगी से,
तब तो पूरा आज़ाद थे|
धर्म का कोई बंधन ना था,
ना था कोई डर भगवान से|
आज जो ख़ौफ्फ है पुजारियो से,
उस ख़ौफ्फ से बिल्कुल आज़ाद थे|
वो दोस्त जिसके डब्बे से खाते थे,
वो दोस्त जिसको दिन भर चिढ़ते थे,
आज जिसको धर्म पे बाटते हैं,
तब उसका पूरा नाम भी नही जानते थे|
ये बटवारा काइया किसने है?
ये दर्रार डाली किसने है?
पर आज जो दर्रार भरने को डरते हैं,
उस डर से तब सब आज़ाद थे|
मन का कहने से डर ना लगता था,
ना था डर खुल क सोचने में|
आज जिस सोच में भी झींझक है,
उस झींझक से पूरा आज़ाद थे|
उस सोचने से ही आता था समझ,
सही-ग़लत क बीच का भेद|
आज जो भेद भी धुंधला सा लगता है,
उस उलझन से तब आज़ाद थे|
इस झींझक, इस ख़ौफ़, इस घुटन से,
चाहिए आज तो आज़ादी हमें|
ना लौटा सको वो बचपन तो,
वो आज़ादी ही लौटा दो हमें|
What you're saying is completely true. I know that everybody must say the same thing, but I just think that you put it in a way that everyone can understand. I'm sure you'll reach so many people with what you've got to say.
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